देश की सबसे बड़ी और प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्था, दिल्ली विश्वविद्यालय (DU), इस समय एक बड़े विवाद के केंद्र में है। हाल ही में जारी किए गए अंडरग्रेजुएट एडमिशन फॉर्म में मातृभाषा (Mother Tongue) के कॉलम में कुछ अजीबोगरीब और अस्वीकार्य विकल्प दिए गए थे। इनमें भाषाओं की बजाय जाति, पेशा और समुदाय के नाम जैसे “चमार”, “मजदूर”, “देहाती”, “मोची”, “कुर्मी”, “मुस्लिम” और “बिहारी” शामिल थे। इस गलती ने न केवल छात्रों और अभिभावकों को हैरान किया, बल्कि पूरे देश में जमकर आलोचना और विवाद भी खड़ा कर दिया।
विवाद की शुरुआत: मातृभाषा कॉलम में अनजाने और आपत्तिजनक विकल्प
शिक्षा के सबसे अहम दस्तावेज़ में, जहां छात्रों से उनकी मातृभाषा के बारे में पूछा जाना चाहिए था, वहां जाति और समुदाय के नाम दिए जाना बेहद असामान्य और संवेदनशील मुद्दा बन गया है। मातृभाषा से तात्पर्य एक ऐसी भाषा से होता है जिसे कोई व्यक्ति अपने बचपन में सबसे पहले सीखता है और जिसके माध्यम से वह अपने परिवार और समाज से जुड़ता है। लेकिन यहां दिल्ली विश्वविद्यालय के फॉर्म में जाति और समुदाय को मातृभाषा के विकल्प के रूप में पेश करना एक बड़ी भूल मानी जा रही है।
भाषाओं का अभाव और जाति-समुदाय का वर्चस्व
यह विवाद और भी बढ़ गया जब इस फॉर्म में उर्दू, मैथिली, भोजपुरी, मगही जैसी भाषाओं का नाम तक नहीं था। जबकि ये भाषाएं न केवल देश के विभिन्न हिस्सों में बोली जाती हैं, बल्कि हजारों छात्रों की मातृभाषा भी हैं। बंगाली जैसी प्रमुख भाषा का भी विकल्प फॉर्म में मौजूद नहीं था। इसके बजाय जाति और समुदायों को मातृभाषा के विकल्प के रूप में दिया जाना कई लोगों के लिए अस्वीकार्य रहा।
शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रिया
डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट की प्रोफेसर अभा देव हबीब ने इस मामले को सीधे-सीधे “इस्लामोफोबिक” और “जातिवादी मानसिकता” का उदाहरण बताया। उन्होंने कहा कि ये न केवल शिक्षा के क्षेत्र में गैरजिम्मेदारी है, बल्कि यह समाज में मौजूद पूर्वाग्रहों और भेदभाव को बढ़ावा देता है। इसके अलावा, ऑल इंडिया फोरम फॉर राइट टू एजुकेशन ने सवाल उठाया कि यदि मुस्लिम को भाषा माना जा रहा है, तो क्या आगे चलकर हिंदी की जगह हिंदू को भाषा माना जाएगा? यह एक गंभीर सोच-विचार का विषय है।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएं: कांग्रेस और बीजेपी के बयानों में फर्क
इस मामले को लेकर कांग्रेस ने इसे एक साज़िश करार दिया, जहां उन्होंने आरोप लगाया कि यह जान-बूझकर की गई कार्रवाई है ताकि कुछ समुदायों को अपमानित किया जा सके। वहीं दूसरी ओर बीजेपी ने इसे केवल एक “ह्यूमन एरर” यानी मानवीय गलती बताते हुए मामले को शांत करने की कोशिश की।
क्या यह एक सामान्य गलती है या सोच-समझकर किया गया कदम?
यह सवाल हर किसी के जेहन में उठता है कि क्या इतनी बड़ी और प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से ऐसी चूक हो सकती है या इसे नजरअंदाज किया जा सकता है? क्या यह सच में एक अनजाने में हुई गलती है, या कहीं यह एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है? शिक्षाविदों, छात्रों और आम जनता के बीच इस सवाल ने भारी उत्सुकता और नाराजगी पैदा कर दी है।
सामाजिक और शैक्षणिक प्रभाव
यह विवाद केवल एक विश्वविद्यालय के फॉर्म की गलती भर नहीं है, बल्कि यह देश में भाषा, जाति, समुदाय और सांस्कृतिक पहचान के प्रति बढ़ती असहिष्णुता और संवेदनशीलता का संकेत भी है। भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश में मातृभाषा को सही और सम्मानजनक रूप से मान्यता देना अत्यंत आवश्यक है। यदि इस तरह की गलती दोहराई गई, तो इससे छात्रों के मानसिक और सामाजिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
आगे की राह: दिल्ली विश्वविद्यालय को क्या करना चाहिए?
- तत्काल माफी और स्पष्टता: विश्वविद्यालय को इस मामले में तुरंत माफी मांगनी चाहिए और स्पष्ट रूप से यह बताना चाहिए कि यह गलती अनजाने में हुई थी, और भविष्य में इस प्रकार की चूक नहीं होगी।
- फॉर्म में सुधार और पुनः प्रकाशन: एडमिशन फॉर्म में उपयुक्त और सही भाषाओं को शामिल कर नए सिरे से जारी करना चाहिए।
- सामाजिक जागरूकता और संवेदनशीलता: विश्वविद्यालय को जाति, धर्म और भाषा जैसे संवेदनशील विषयों पर जागरूकता फैलाने के लिए पहल करनी चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी गलतफहमियां न हों।
- छात्रों और सामाजिक संगठनों से संवाद: छात्र समुदाय और सामाजिक संगठनों से चर्चा कर इस मुद्दे को समझने और सुधारने का प्रयास करना चाहिए।
दिल्ली विश्वविद्यालय का मातृभाषा विवाद हमें यह याद दिलाता है कि शिक्षा संस्थान न केवल ज्ञान देने के लिए हैं, बल्कि वे सामाजिक समानता, सम्मान और संवेदनशीलता को भी बढ़ावा देने का काम करते हैं। इस विवाद ने यह भी दिखाया कि छोटी सी भी गलती कितनी बड़ी सामाजिक और राजनीतिक समस्या बन सकती है।
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