इटावा जाति विवाद: क्या सत्ता की चाह में जातियों को लड़ाया जा रहा है?

उत्तर प्रदेश के इटावा जिले से हाल ही में सामने आए एक जातिगत हमले ने ना केवल पूरे राज्य को झकझोर दिया है, बल्कि इसने भारतीय राजनीति में जाति के इस्तेमाल पर भी कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सवाल ये है कि क्या चुनावी फायदे के लिए राजनीतिक दल जानबूझकर जातियों के बीच वैमनस्य फैला रहे हैं?

क्या है पूरा मामला?

घटना इटावा जिले की है, जहां कथावाचक और यादव समुदाय से ताल्लुक रखने वाले एक व्यक्ति को कथित रूप से अपमानित किया गया। आरोप है कि कथावाचक का सिर आधा मुंडवाया गया, उसे ज़मीन पर नाक रगड़ने को मजबूर किया गया और सार्वजनिक रूप से माफी मांगने पर मजबूर किया गया। कथित तौर पर ये सब इसलिए किया गया क्योंकि कुछ ब्राह्मण समुदाय के लोगों को यह बात नागवार गुज़री कि एक यादव व्यक्ति धार्मिक कथा सुना रहा है।

तनाव और आंदोलन

इस घटना के बाद यादव समुदाय में जबरदस्त गुस्सा देखने को मिला। ‘अहीर रेजिमेंट’ जैसे बैनरों के साथ लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया और हालात इतने बिगड़ गए कि पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच पथराव की नौबत आ गई। इटावा की सड़कों पर तनाव फैल गया और प्रशासन को भारी पुलिस बल तैनात करना पड़ा।

जाति का राजनीतिकरण

उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाति हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रहा है। ब्राह्मण, ठाकुर, यादव, दलित—हर जाति को अपने-अपने वोट बैंक के रूप में देखा जाता है। चुनाव आते ही इन जातियों के बीच ‘अपना नेता’ और ‘अपना अधिकार’ जैसे नारों की बाढ़ आ जाती है। ऐसे में इटावा की घटना को कुछ विश्लेषक एक सोची-समझी साजिश बता रहे हैं, जिसका मकसद जातीय ध्रुवीकरण के ज़रिए राजनीतिक फायदा उठाना है।

क्या है विपक्ष और सत्ता पक्ष की स्थिति?

योगी सरकार पर पहले भी ठाकुरों को प्राथमिकता देने के आरोप लगे हैं। दूसरी तरफ ब्राह्मणों के एक वर्ग में यह धारणा बन रही है कि उन्हें भी राजनीतिक हाशिए पर डाला जा रहा है। ऐसे में जब यादव जैसे संगठित समुदाय के खिलाफ कोई ऐसी घटना होती है, तो उसमें राजनीतिक संभावनाएं तलाशी जाती हैं।

विपक्ष भी इस मुद्दे को लेकर मुखर है। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस जैसे दलों ने इस मामले में सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाए हैं। वहीं, भाजपा इसे स्थानीय विवाद बताकर मामले को सुलझाने की कोशिश कर रही है।

सामाजिक संदेश और भविष्य की दिशा

इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आज भी जाति हमारे समाज और राजनीति का सबसे संवेदनशील हिस्सा है। जब तक राजनीति में जातिगत समीकरण प्राथमिकता बने रहेंगे, तब तक इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी। सवाल यह है कि क्या हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जहां धर्म और जाति की दीवारें चुनावी रणनीति का हिस्सा न हों?

निष्कर्ष

इटावा की घटना केवल एक जातिगत टकराव नहीं है, यह एक सामाजिक चेतावनी है कि अगर हमने समय रहते जाति की राजनीति से ऊपर उठकर सोच नहीं बनाई, तो समाज में और गहराई तक बंटवारा हो सकता है। सत्ता की चाह में अगर जातियों को आपस में लड़ाया जाएगा, तो लोकतंत्र की आत्मा ही खतरे में पड़ जाएगी।

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