महाराष्ट्र सरकार ने लिया बड़ा फैसला — प्राथमिक कक्षाओं में हिंदी अब अनिवार्य विषय होगी। लेकिन इस कदम ने राजनीतिक और भाषाई बहस को फिर से हवा दे दी है।
हिंदी और मराठी की ज़मीन पर एक नई बहस ने जन्म ले लिया है। महाराष्ट्र सरकार के इस ताज़ा फैसले ने राज्य में राजनीति को गरमा दिया है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की अगुआई वाली सरकार ने यह ऐलान किया है कि अब राज्य के सभी प्राथमिक स्कूलों में हिंदी भाषा को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाएगा।
जहां सरकार इस फैसले को राष्ट्रीय एकता और भाषा सशक्तिकरण के रूप में देख रही है, वहीं विपक्ष इसे क्षेत्रीय पहचान पर हमला मान रहा है।
विपक्ष का विरोध: “मराठी अस्मिता पर हमला”
शिवसेना (UBT) प्रमुख उद्धव ठाकरे ने इस फैसले पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। उनका कहना है, “क्या भाजपा की हिम्मत है कि वो हिंदी को तमिलनाडु में भी अनिवार्य करे?” उन्होंने सवाल उठाया कि महाराष्ट्र में मराठी बोलने वालों की संख्या अधिक है, तो फिर हिंदी को जबरन थोपा क्यों जा रहा है?
कांग्रेस और एनसीपी ने भी इस फैसले की आलोचना की है। उनका मानना है कि यह क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को कमतर आंकने की कोशिश है।
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सरकार का तर्क: हिंदी को नज़रअंदाज़ क्यों?
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने विपक्ष पर पलटवार करते हुए कहा, “जो लोग हिंदी का विरोध कर रहे हैं, वही अंग्रेज़ी को ‘प्रगति की भाषा’ मानकर उसकी पूजा करते हैं। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, और इसे जानना हमारे बच्चों के भविष्य के लिए ज़रूरी है।”
फडणवीस ने यह भी कहा कि यह फैसला सभी छात्रों को तीन-भाषा फॉर्मूले के तहत भारत की प्रमुख भाषाओं से जोड़ने के उद्देश्य से लिया गया है।
तीन भाषा फॉर्मूला क्या है?
भारत सरकार की शिक्षा नीति के अंतर्गत ‘तीन भाषा फॉर्मूला’ प्रस्तावित है, जिसमें छात्रों को उनकी मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेज़ी पढ़ाई जाती है। इस फॉर्मूले का उद्देश्य राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करना और भाषायी विविधता को संतुलित बनाए रखना है।
लेकिन इसे लागू करने में हर राज्य की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं और संवेदनशीलताएं होती हैं। दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर राज्यों में पहले भी हिंदी थोपने के आरोप लगते रहे हैं।
मराठी बनाम हिंदी: असली चिंता क्या है?
भाषा का सवाल केवल शिक्षा या संचार का नहीं है, यह पहचान, संस्कृति और सत्ता से भी जुड़ा होता है। महाराष्ट्र में मराठी भाषा को लेकर गहरी भावनाएं जुड़ी हुई हैं। ऐसे में हिंदी को अनिवार्य बनाना कई लोगों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों पर हमला लगता है।
सामाजिक कार्यकर्ता और भाषा विशेषज्ञों का कहना है कि यह मुद्दा केवल “हिंदी बनाम मराठी” नहीं है, बल्कि यह सवाल है कि क्या बच्चों पर एक और भाषा थोपना सही है जब पहले से ही मातृभाषा और अंग्रेज़ी पढ़ाई जा रही है?
जनता में मिली-जुली प्रतिक्रिया
महाराष्ट्र में रहने वाले हिंदी भाषी समुदाय ने इस फैसले का स्वागत किया है, जबकि मराठी भाषी परिवारों में नाराज़गी देखी जा रही है। सोशल मीडिया पर #HindiImposition और #SaveMarathi जैसे ट्रेंड्स चलने लगे हैं।
उत्तर भारत के कई लोगों ने इस फैसले को सराहा है, क्योंकि इससे भाषा के स्तर पर “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” की भावना को बल मिलेगा।
भविष्य की राह: समाधान क्या हो सकता है?
- स्वैच्छिक विकल्प: छात्रों को भाषाएं चुनने की आज़ादी दी जाए, ताकि कोई भाषा किसी पर थोपी न जाए।
- संवेदनशील संवाद: राज्य सरकारों को भाषा नीतियों पर फैसला लेने से पहले स्थानीय समुदायों और भाषा विशेषज्ञों से संवाद करना चाहिए।
- समान संतुलन: हिंदी, अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषाओं को बराबर महत्व दिया जाए ताकि कोई भाषा खतरे में न पड़े।
महाराष्ट्र में हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाए जाने का फैसला शिक्षा के स्तर पर भले ही एक सकारात्मक पहल लगे, लेकिन यह भाषाई अस्मिता से जुड़ा एक संवेदनशील मुद्दा बन गया है। देश की भाषाई विविधता ही उसकी ताकत है। ऐसे में किसी भी निर्णय को लागू करने से पहले संवाद, सहमति और संवेदना ज़रूरी है।
हिंदी को बढ़ावा देना ज़रूरी है, लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं को कमज़ोर किए बिना। तभी बनेगा एक सशक्त और एकजुट भारत।
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