आज जब इंटरनेशनल फैशन ब्रांड्स रैम्प वॉक से लेकर विज्ञापनों तक भारतीय डिज़ाइनों और परंपराओं से प्रेरित फैशन आइटम्स पेश कर रहे हैं, तो यह सवाल ज़रूरी हो जाता है: क्या उन्हें इसके लिए भारतीय कारीगरों को श्रेय देना चाहिए? क्या ये सिर्फ प्रेरणा है या कलात्मक चोरी?जब कोई विदेशी ब्रांड कोल्हापुरी चप्पल जैसा डिज़ाइन तैयार करता है और उसे 500 डॉलर में बेचता है, लेकिन यह नहीं बताता कि यह डिज़ाइन कहाँ से आया, तो यह क्या सिर्फ फैशन इनोवेशन कहलाता है या यह सांस्कृतिक शोषण है?
भारत की पारंपरिक कला: फैशन का रीमिक्स?
हाल ही में Prada, Louis Vuitton, Dior जैसी कंपनियों ने जो डिज़ाइन्स पेश किए हैं, वे साफ तौर पर भारतीय संस्कृति और हस्तकला से प्रेरित हैं। फिर भी, इन डिज़ाइनों में न तो “India” का ज़िक्र होता है, न किसी भारतीय कारीगर का नाम, और न उस गहराई का, जिससे वे डिज़ाइन्स जन्म लेते हैं।यह कोई नई बात नहीं — यह एक फैशन ट्रेंड बन चुका है। भारत की पारंपरिक कला को “रीमिक्स”, “रिब्रांड” और “रीपैकेज” करके पश्चिमी नामों के साथ बेचा जा रहा है। और यह सब हो रहा है बिना स्थानीय कारीगरों या समुदायों की मान्यता के।
मारिया शकील के 7 ज़रूरी सवाल जो हमें सोचने पर मजबूर करते हैं
- भारतीय डिज़ाइन जब विदेशी ब्रांड अपनाते हैं, तभी वो “हाई फैशन” क्यों बन जाता है?
भारत में वही डिज़ाइन को “पुराना”, “देसी”, या “गांव वाला” क्यों कहा जाता है? - क्या भारतीय कारीगरों की पहचान खत्म हो गई है?
जो हस्तकला वे पीढ़ियों से सहेजते आए हैं, उसकी ग्लोबल ब्रांडिंग कोई और क्यों कर रहा है? - क्या पश्चिम भारतीय संस्कृति को बस पहनने लायक ‘ट्रेंड’ मानता है?
क्या वो इसे समझना, सराहना या संरक्षित करना नहीं चाहता? - क्या हम खुद अपने डिज़ाइनों को कमतर आंककर अपनी विरासत बेच रहे हैं?
- हम अपने स्थानीय डिज़ाइनर्स और कारीगरों को सपोर्ट क्यों नहीं करते, जबकि हमारे पास विविधता और रचनात्मकता की भरमार है?
- क्या सरकार को अब पारंपरिक डिज़ाइनों को GI टैग नहीं देना चाहिए?
जिससे उन्हें कानूनी सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिले। - क्या अब वक्त नहीं आ गया कि भारत सिर्फ ट्रेंड फॉलो न करे, बल्कि ट्रेंड बनाए?
GI टैग और कलात्मक अधिकार: कारीगरों की रक्षा जरूरी
Geographical Indication (GI) टैग भारत की पारंपरिक कला और उत्पादों को कानूनी सुरक्षा देता है। जैसे बनारसी साड़ी, मधुबनी पेंटिंग, या कोल्हापुरी चप्पल को GI टैग मिला है। लेकिन कई असली कारीगरों तक न तो ये टैग पहुंचता है, न लाभ।सरकार और फैशन इंडस्ट्री को मिलकर एक नया ढांचा बनाना चाहिए, जहाँ हर डिज़ाइन को उसके मूल कारीगरों से जोड़ा जाए, ताकि कॉपीराइट और रॉयल्टी जैसी व्यवस्था भी लागू की जा सके।
लोकल को ग्लोबल बनाने का सही तरीका
हाथ की बुनाई, जो दुनिया में सबसे महीन है।
ब्लॉक प्रिंटिंग, जिसकी सादगी अनोखी है।
कशीदाकारी, जो एक कहानी कहती है।
और रंगों की ऐसी विविधता, जो शायद दुनिया में कहीं नहीं।
अगर भारत की फैशन विरासत को सही तरीके से पेश किया जाए, तो हम फैशन के लीडर बन सकते हैं, न कि सिर्फ ‘प्रेरणा’।
यह लड़ाई केवल फैशन की नहीं, पहचान की है
जब तक हम अपनी कला, अपनी संस्कृति और अपने कारीगरों को स्वाभिमान से नहीं देखेंगे, कोई और उसे अपनाकर दुनिया को दिखाता रहेगा और हम सिर्फ ट्रेंड फॉलोअर बने रहेंगे।यह वक्त है मेड इन इंडिया से आगे बढ़कर डिज़ाइन्ड इन इंडिया, क्राफ़्टेड बाय इंडियंस” को पहचान दिलाने का।
प्रमुख कीवर्ड्स
- भारतीय फैशन विरासत
- इंटरनेशनल फैशन ब्रांड्स की नकल
- भारतीय कारीगरों को श्रेय
- सांस्कृतिक शोषण और GI टैग
- लोकल फैशन सपोर्ट करें
- पश्चिमी ब्रांड द्वारा भारतीय डिज़ाइन चोरी
- कलात्मक सांस्कृतिक अधिकार
- भारतीय हस्तकला की सुरक्षा
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