पश्चिम बंगाल का मुर्शिदाबाद जिला इन दिनों खौफ के साए में जी रहा है। वक्फ़ संपत्ति को लेकर शुरू हुआ विवाद अब सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले चुका है। दंगे की लपटें थम जरूर गई हैं, लेकिन जो कुछ पीछे छूट गया है, वो हैं राख में दबे आंसू, टूटी दीवारें और बिखरी उम्मीदें।
इस हिंसा के सबसे ज्यादा शिकार हुए हैं हिंदू समुदाय के वो लोग, जो अब पलायन के लिए मजबूर हो गए हैं। एक समय जिस घर में पीढ़ियों ने साथ जश्न मनाया, अब वहां ताले लटके हैं। डर इस कदर फैला है कि लोग रात को सोते वक्त दरवाजे पर ताले नहीं, बल्कि मन पर डर की चिटकनी लगाकर सोते हैं।
“रोटी के लिए निकले, घर वापसी नामुमकिन हो गई”
मुर्शिदाबाद की गलियों में जो दहशत फैली है, उसकी कहानियाँ रूह कंपा देने वाली हैं। एक स्थानीय दुकानदार बताते हैं – “हमें समझ नहीं आ रहा, हम क्या गुनाह कर बैठे। दुकान खोलने निकले थे, पर रास्ते में जो देखा, उससे जिंदगी भर की हिम्मत टूट गई।”
कई घरों में आगजनी हुई, कई परिवारों को निशाना बनाया गया। घर-परिवार छोड़कर पलायन कर चुके लोग अब अस्थायी शिविरों में हैं, जहां ना सुरक्षा है, ना स्थायित्व।
सवाल सिर्फ हिंसा का नहीं, सिस्टम का है
हिंसा के बाद जो सबसे बड़ी पीड़ा सामने आई है, वो है प्रशासन की भूमिका पर उठते सवाल। क्यों समय रहते हालात पर काबू नहीं पाया गया? क्यों पुलिस की मौजूदगी के बावजूद उपद्रवी बेलगाम रहे? और क्या राज्य सरकार ने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाई?
इन सवालों का जवाब न राज्य सरकार दे रही है, न ही केंद्र इस मुद्दे पर गंभीर दिख रहा है। संसद में भी यह मुद्दा उठाया गया, लेकिन चर्चा सिर्फ राजनीति तक सिमट गई।
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वक्फ़ संपत्ति और बढ़ती असुरक्षा
वक्फ़ संपत्तियों को लेकर उठे विवाद ने एक बड़ा सामाजिक और संवैधानिक सवाल खड़ा कर दिया है। क्या वक्फ़ कानून के नाम पर एकतरफा कब्जेदारी को जायज ठहराया जा सकता है? क्या हिंदू संपत्तियों पर दावे अब नॉर्मल हो चुके हैं?
कई रिपोर्टों के मुताबिक, जिन इलाकों में वक्फ़ बोर्ड ने दावा जताया, वहीं सबसे ज्यादा हिंसा हुई। इसका सीधा सा मतलब है – कहीं न कहीं ये विवाद ‘धार्मिक पहचान’ की राजनीति से प्रेरित था।
जो घर छोड़ गए, वो क्या लौट पाएंगे?
सबसे गंभीर सवाल यही है – क्या मुर्शिदाबाद छोड़कर जा चुके हिंदू परिवार कभी लौट पाएंगे? क्या उनकी सुरक्षा की गारंटी दी जा सकती है? या फिर ये पलायन एक स्थायी विस्थापन बन जाएगा?
कुछ जानकारों का मानना है कि यह घटना बंगाल के बदलते जनसंख्या समीकरण की भी एक झलक है, जहां हिंदू समुदाय खुद को अल्पसंख्यक महसूस करने लगा है। डर का माहौल बना दिया गया है – सामाजिक संतुलन को तोड़ने के लिए।
मीडिया और न्यायपालिका की भूमिका
मीडिया के कुछ हिस्सों ने इस खबर को प्रमुखता से उठाया, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे को वह ध्यान नहीं मिल पाया, जो मिलना चाहिए था। न्यायपालिका की ओर भी पीड़ित परिवारों की निगाहें टिकी हैं – क्या उन्हें इंसाफ मिलेगा?
मुर्शिदाबाद की इस आग ने सिर्फ एक जिले को नहीं जलाया, बल्कि देश के सामाजिक ताने-बाने पर भी एक गहरी चोट की है। अगर अब भी इस तरह की घटनाओं को सिर्फ “स्थानीय मामला” कहकर नजरअंदाज़ किया गया, तो ये एक बड़ी चूक होगी।
ये सिर्फ बंगाल की कहानी नहीं है, ये उस भारत की कहानी है, जहाँ हर नागरिक को समान सुरक्षा और न्याय मिलना चाहिए। वक्फ़ संपत्तियों के नाम पर अगर बहुसंख्यक समुदाय को डराया जाएगा, तो लोकतंत्र का संतुलन डगमगाएगा।
अब समय आ गया है कि सरकार, संसद और न्यायपालिका तीनों एकजुट होकर इस पर गंभीरता से कदम उठाएं। नहीं तो मुर्शिदाबाद आज है, कल कोई और शहर इस आग की चपेट में होगा।
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