कर्नाटक सरकार ने हाल ही में एक बड़ा प्रस्ताव पेश किया है, जिससे राज्य के कामकाजी लोगों की ज़िंदगी में बड़ा बदलाव आने वाला है। सरकार ने Karnataka Shops and Commercial Establishments Act, 1961 में संशोधन का प्रस्ताव दिया है, जिसमें दैनिक काम के घंटे 9 से बढ़ाकर 10 करने और ओवरटाइम की सीमा को तीन महीने में 50 घंटे से बढ़ाकर 144 घंटे करने की बात की गई है। यह प्रस्ताव न केवल कर्नाटक के लाखों कर्मचारियों को प्रभावित करेगा, बल्कि भारत के वर्क कल्चर में भी नई बहस छेड़ सकता है।
कर्नाटक सरकार का प्रस्ताव और उसकी वजह
सरकार का कहना है कि इस बदलाव से उद्योगों को ज़्यादा फ्लेक्सिबिलिटी मिलेगी। खासकर IT, ई-कॉमर्स, मैन्युफैक्चरिंग जैसे सेक्टर में काम करने वाले उद्योग वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए अधिक लचीले कामकाजी घंटों की मांग कर रहे हैं। कर्नाटक सरकार और कई उद्योगपति इस कदम को ‘वर्कफोर्स ऑप्टिमाइज़ेशन’ का हिस्सा मानते हैं। उनका तर्क है कि बढ़े हुए घंटे कंपनियों की प्रोडक्टिविटी बढ़ाने में मदद करेंगे और रोजगार में वृद्धि होगी।
क्या यह बदलाव कर्मचारियों के लिए लाभकारी है?
हालांकि उद्योगपतियों के तर्क में कुछ हद तक सचाई है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या लगातार बढ़ते काम के घंटे कर्मचारियों के लिए सही होंगे? भारत पहले ही उन देशों में शामिल है, जहां लोग सबसे ज्यादा काम करते हैं, लेकिन प्रोडक्टिविटी उतनी नहीं होती जितनी होनी चाहिए। लंबे और लगातार काम के घंटे कर्मचारियों में थकावट, तनाव और बर्नआउट की समस्या को जन्म दे सकते हैं।
कर्मचारियों और यूनियनों की प्रतिक्रिया
कई कर्मचारी संगठन और वर्कर यूनियनों ने इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया है। उनका कहना है कि बिना कर्मचारियों की सहमति के ऐसा फैसला उनकी ज़िंदगी और परिवार के समय पर चोट करता है। यूनियनों ने इस प्रस्ताव को मजदूर विरोधी बताते हुए कहा है कि इंसान मशीन नहीं, बल्कि जीवन के कई पहलुओं के साथ एक संवेदनशील जीव है। उनका कहना है कि काम के घंटे बढ़ाने से वर्क-लाइफ बैलेंस बिगड़ सकता है और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
वैश्विक वर्क कल्चर और भारत
दुनिया में आजकल ‘फोर-डे वीक’ और ‘फ्लेक्सिबल वर्किंग आवर्स’ जैसे कंसेप्ट्स तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं, क्योंकि कंपनियां समझ चुकी हैं कि खुशहाल और स्वस्थ कर्मचारी ही प्रोडक्टिव होते हैं। ऐसे में भारत में काम के घंटे बढ़ाने का यह कदम क्या सही दिशा में है? क्या यह विकास है या फिर कर्मचारियों के लिए शोषण का नया रूप?
आपके लिए क्या मायने रखता है?
यह प्रस्ताव हर कर्मचारी, उद्योग और नीति निर्धारक के लिए सोचने का विषय है। क्या 10 घंटे की ड्यूटी काम के बोझ को बढ़ाएगी? क्या इससे कर्मचारी मानसिक रूप से और सामाजिक तौर पर प्रभावित होंगे? या यह कदम रोजगार में वृद्धि और आर्थिक विकास के लिए जरूरी है?
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