लखनऊ, उत्तर प्रदेश की राजधानी, जहां सियासत की हर हलचल दूर-दूर तक असर छोड़ती है, आज एक नए सामाजिक और राजनीतिक संदेश का गवाह बनी। समाजवादी पार्टी (सपा) ने यहां ‘होली और ईद मिलन, सद्भाव मिलन’ कार्यक्रम का आयोजन कर ना सिर्फ त्योहारों को साथ मिलकर मनाने का संदेश दिया, बल्कि मौजूदा सियासी माहौल में एकजुटता और भाईचारे की मिसाल भी पेश की। इस मौके पर पार्टी ने बीजेपी के ‘एक हैं तो नेक हैं’ और ‘बटेंगे तो कटेंगे’ जैसे नारों के जवाब में अपना नया नारा – ‘आओ गले मिलें’ – पेश किया।
विविधता में एकता का संदेश
कार्यक्रम में हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई समाज के वरिष्ठ धर्मगुरु और प्रतिष्ठित लोग मौजूद रहे। मंच पर जब सभी धर्मों के प्रतिनिधि एक साथ नजर आए, तो वह नज़ारा अपने आप में भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब की झलक था। सपा ने इस आयोजन के माध्यम से यह दर्शाने की कोशिश की कि उनका एजेंडा सिर्फ सत्ता नहीं, बल्कि सामाजिक सौहार्द और समरसता है।
सपा के नेता शामिल, अखिलेश की रणनीति स्पष्ट
कार्यक्रम में सपा के वरिष्ठ नेता जैसे शिवपाल यादव, अवधेश प्रसाद, अबु आसिम आजमी, मोहम्मद बर्क, और माता प्रसाद पांडे समेत कई जाने-माने चेहरे शामिल हुए। हालांकि पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव खुद कार्यक्रम में मौजूद नहीं थे, लेकिन उनकी मौजूदगी की कमी किसी को खली नहीं। मंच और मौजूद नेता खुद संदेश देने में सक्षम थे – सपा अब समाज के हर वर्ग को जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही है।
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‘बटवारे की राजनीति’ बनाम ‘मिलन की राजनीति’
बीजेपी द्वारा हाल ही में चलाए गए नारों – “एक हैं तो नेक हैं” और “बटेंगे तो कटेंगे” – पर सपा ने सीधा प्रहार करते हुए अपने नारे “आओ गले मिलें” को सामने रखा। सपा का कहना है कि बीजेपी समाज को धर्म और जाति के आधार पर बाँटने का काम कर रही है, जबकि उनकी पार्टी समाज के सभी वर्गों को जोड़ने और भाईचारा कायम करने की दिशा में काम कर रही है।
यह नारा केवल एक जुमला नहीं, बल्कि एक विचारधारा का प्रतीक है। एक ऐसा प्रयास जिसमें राजनीति को सेवा का माध्यम बनाया जा रहा है, न कि समाज में खाई पैदा करने का।
वक्फ की राजनीति और अल्पसंख्यकों की ओर संदेश
कार्यक्रम के दौरान वक्फ संपत्तियों को लेकर भी चर्चा हुई। सपा ने इस मंच का इस्तेमाल करते हुए अल्पसंख्यक समाज को आश्वासन दिया कि उनकी पार्टी उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। यह संदेश स्पष्ट था – सपा अल्पसंख्यकों के साथ है, और उन्हें डराने या बांटने की राजनीति का विरोध करती है।
2024 के बाद की राह और 2025 की तैयारी
इस आयोजन को सिर्फ एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के तौर पर नहीं देखा जा सकता। यह एक रणनीतिक कदम है, जिसकी पृष्ठभूमि 2024 के लोकसभा चुनाव और 2027 के यूपी विधानसभा चुनाव से जुड़ी है। सपा जानती है कि उसे अपने पुराने जनाधार – खासकर पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय – को फिर से संगठित करना होगा।
‘आओ गले मिलें’ जैसा नारा, जहां एक तरफ सपा के सामाजिक एजेंडे को मजबूत करता है, वहीं दूसरी तरफ बीजेपी की ध्रुवीकरण की राजनीति को सीधी चुनौती भी देता है।
समाजवादी पार्टी का लखनऊ में हुआ यह सद्भाव मिलन कार्यक्रम केवल एक सामाजिक प्रयास नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नई दिशा का संकेत है। एक ऐसा संकेत जो बताता है कि आने वाले समय में चुनावी मुकाबला केवल विकास और आंकड़ों पर नहीं, बल्कि सामाजिक एकता बनाम ध्रुवीकरण के मुद्दे पर भी होगा।
समाज को जोड़ने और मिलाने की इस पहल में अगर सपा सफल होती है, तो यह उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव ला सकता है।
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