हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ एक्ट को लेकर एक अहम अंतरिम आदेश दिया है, जिसने एक बार फिर न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के संबंधों पर बहस छेड़ दी है। वक्फ बोर्ड से जुड़ी संपत्तियों पर कानूनी सवालों के बीच, अदालत ने वक्फ अधिनियम, 1995 की कुछ धाराओं के अमल पर अस्थायी रोक लगाई है। यह आदेश उन लोगों के लिए राहत है जो वर्षों से वक्फ बोर्ड के अधिकार क्षेत्र को लेकर सवाल उठाते रहे हैं।
पर इस कानूनी फैसले से कहीं बड़ी बात अब देश में उठ रही है — क्या सुप्रीम कोर्ट अब ‘सुपर पार्लियामेंट’ बनता जा रहा है?
क्या है वक्फ एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा आदेश?
देश के विभिन्न हिस्सों में हजारों एकड़ जमीन पर वक्फ बोर्ड का दावा है। इनमें से कई संपत्तियों पर विवाद हैं — कुछ हिन्दू पक्ष से, कुछ निजी व्यक्तियों से, और कई सरकारी संस्थाओं से भी।
सुप्रीम कोर्ट में लंबित याचिकाओं में आरोप लगाया गया कि वक्फ अधिनियम 1995 संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध है, क्योंकि यह एक धर्म विशेष के लिए अलग प्रशासनिक व्यवस्था देता है और गैर-मुस्लिमों को इससे पूरी तरह बाहर कर देता है।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने प्राथमिक दृष्टि से इन आपत्तियों को गंभीर माना और वक्फ अधिनियम की कुछ विवादित धाराओं के अमल पर रोक लगाते हुए, केंद्र और राज्यों से जवाब मांगा है। ये एक अंतरिम आदेश है, लेकिन इसका असर व्यापक होगा।
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धनखड़ का बयान: अनुच्छेद 142 या ‘न्यायपालिका की मिसाइल’?
भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस पूरे घटनाक्रम पर अपनी नाराजगी स्पष्ट शब्दों में जाहिर की। उन्होंने कहा:
“हमारे पास ऐसे जज हैं जो कानून बनाएंगे, कार्यपालिका के कार्य करेंगे, सुपर संसद बनेंगे और जिन पर कोई जवाबदेही नहीं होगी…”
धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 142 के ज़रिए “लोकतंत्र की ताकतों के खिलाफ 24×7 उपलब्ध परमाणु मिसाइल” तक कह दिया।
आख़िर क्या है अनुच्छेद 142?
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार देता है कि वह अपने समक्ष लंबित किसी भी मामले में “पूर्ण न्याय” के लिए कोई भी आदेश दे सकता है। इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट किसी भी मौजूदा कानून के ऊपर जाकर ऐसा निर्णय दे सकता है जिससे न्याय सुनिश्चित हो सके।
अब समस्या यह है कि यही शक्ति कभी-कभी कार्यपालिका या संसद के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का माध्यम बन जाती है।
न्यायपालिका बनाम लोकतांत्रिक संतुलन की बहस
इस घटना ने एक बार फिर ये सवाल खड़ा कर दिया है:
क्या सुप्रीम कोर्ट को इतनी “पूर्ण शक्ति” मिलनी चाहिए कि वो संसद या कार्यपालिका के फैसलों को चुनौती दे सके?
जहां एक पक्ष इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और “न्याय दिलाने की आख़िरी उम्मीद” कहता है, वहीं दूसरा पक्ष इसे गैर-जवाबदेह ‘सुपर सरकार’ का रूप मानता है।
वक्फ अधिनियम पर कोर्ट की रोक ने इस डर को और बल दिया है कि अगर सुप्रीम कोर्ट किसी धर्म से जुड़े प्रशासनिक कानूनों को चुनौती देने लगेगा, तो क्या वो संसद के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं मानेगा?
वक्फ कानून पर जनता के सवाल
उत्तर भारत के कई राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में वक्फ बोर्ड पर कब्जों और संपत्ति विवाद को लेकर वर्षों से शिकायतें उठती रही हैं। कई लोगों का आरोप है कि वक्फ बोर्ड की ताकतें स्थानीय प्रशासन को प्रभावित कर निजी संपत्तियों पर भी दावा करती हैं।
अब जब सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून पर सवाल उठाए हैं, तो आम जनता को उम्मीद है कि इस “धार्मिक विशेषाधिकार” की समीक्षा निष्पक्षता से होगी।
वक्फ अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश सिर्फ एक कानूनी आदेश नहीं, बल्कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभों — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — के बीच संतुलन को परखने वाली कसौटी है।
उपराष्ट्रपति के तीखे शब्द और अनुच्छेद 142 पर उठे सवाल देश में एक जरूरी बहस को जन्म दे रहे हैं:
क्या सुप्रीम कोर्ट को संविधान के “पूर्ण न्याय” के नाम पर किसी भी हद तक जा सकने की छूट होनी चाहिए?
यह सवाल आज हर जागरूक नागरिक को खुद से पूछना चाहिए — क्योंकि अगर कानून के रक्षक ही कानून से ऊपर हो जाएं, तो लोकतंत्र का संतुलन कब डगमगा जाए, कहा नहीं जा सकता।
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