महाराष्ट्र की राजनीति में इन दिनों एक ऐसा मुद्दा गरमाया हुआ है जिसने पूरी राज्य की सांस्कृतिक और भाषाई भावनाओं को झकझोर कर रख दिया है। हम बात कर रहे हैं ‘हिंदी थोपाव विवाद’ यानी हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करने के फैसले को लेकर हुई राजनीतिक और सामाजिक बहस की। इस विषय पर केंद्रित होकर आज हम विस्तार से समझेंगे कि आखिर क्या है इस विवाद की जड़, किन्हें आपत्ति है और इसके पीछे के सच को कैसे समझा जा सकता है।
हिंदी थोपाव विवाद की शुरुआत कैसे हुई?
महाराष्ट्र सरकार ने 2024 में एक संशोधित शिक्षा नीति अधिसूचना जारी की, जिसमें सभी स्कूलों में हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करने का प्रावधान किया गया। इसका मतलब ये हुआ कि चाहे स्कूल मराठी माध्यम हों या अंग्रेज़ी माध्यम, सभी को अब हिंदी को तीसरी भाषा के तौर पर पढ़ाना होगा। इस फैसले का औपचारिक कारण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020) के तहत तीन-भाषा फॉर्मूले का पालन बताया गया।
तीन-भाषा फॉर्मूला क्या है?
भारत में तीन-भाषा फॉर्मूला एक ऐसी नीति है जिसमें हर विद्यार्थी को तीन भाषाएं सीखनी होती हैं — एक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, एक राष्ट्रीय भाषा (अक्सर हिंदी या अंग्रेज़ी), और एक अन्य भाषा। महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करना इसी नीति के अनुरूप है।
विरोध की जड़ क्या है?
हालांकि यह नीति कानूनी और शैक्षणिक दृष्टिकोण से सही लग सकती है, लेकिन महाराष्ट्र के कई राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों और मराठी भाषी समुदाय के बीच इसका कड़ा विरोध हुआ।
- महा विकास अघाड़ी (MVA) के नेता जैसे उद्धव ठाकरे, शरद पवार और कांग्रेस ने इसे मराठी भाषा और संस्कृति पर हमला बताया।
- महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख राज ठाकरे ने इसे ‘मराठी अस्मिता’ का सवाल करार दिया और चेतावनी दी कि मराठी भाषा को हिंदी के दबाव में नहीं लाया जाएगा।
- विरोधी दलों का तर्क है कि यह फैसला ‘हिंदी बेल्ट’ की संस्कृति को बाकी राज्यों पर थोपने का एक प्रयास है, जिससे महाराष्ट्र की क्षेत्रीय पहचान कमजोर होगी।
क्या है केंद्र और राज्य के बीच विवाद?
यह मामला सिर्फ एक शिक्षा नीति का नहीं रहा, बल्कि यह संघीयता, भाषा अधिकार और सांस्कृतिक पहचान का भी मुद्दा बन गया है। केंद्र सरकार ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की बात करती है, जिसमें सभी राज्यों के बीच संवाद और एकता को बढ़ावा देना है। पर महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इसे क्षेत्रीय अस्मिता पर खतरा समझा जा रहा है।
राज्य सरकार ने साफ किया है कि मराठी भाषा अनिवार्य बनी रहेगी और हिंदी को सिर्फ तीसरी भाषा के तौर पर प्राथमिकता दी जाएगी, लेकिन यह बात विरोधियों को संतुष्ट नहीं कर पा रही है।
इस विवाद का क्या प्रभाव हो सकता है?
- शैक्षणिक स्तर पर: हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करने से छात्रों को नई भाषा सीखने का अवसर मिलेगा, लेकिन दूसरी ओर, कई छात्र और अभिभावक इसे अनावश्यक बोझ मान रहे हैं।
- सांस्कृतिक स्तर पर: मराठी भाषा प्रेमी इसे अपनी सांस्कृतिक विरासत पर हमला मानते हैं। वे डरते हैं कि हिंदी थोपाव से मराठी भाषा की स्थिति कमजोर पड़ सकती है।
- राजनीतिक स्तर पर: यह मुद्दा राजनीतिक दलों के बीच संघर्ष और क्षेत्रीय राजनीति की नई लड़ाई का केंद्र बन चुका है।
महाराष्ट्र की जनता क्या सोचती है?
इस विवाद में जनता के विचार भी बंटे हुए हैं। कुछ लोग मानते हैं कि हिंदी सीखना भारत की एकता के लिए जरूरी है और इसका विरोध गैरजरूरी है। वहीं कई लोग मराठी भाषा के संरक्षण को प्राथमिकता देते हुए हिंदी थोपाव के खिलाफ खड़े हैं।
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