गणपति बप्पा केवल मिट्टी की मूर्तियाँ नहीं हैं, वे बुद्धि और संकटमोचन के प्रतीक माने जाते हैं। हर साल गणेश चतुर्थी पर हम पूरे हर्ष और श्रद्धा के साथ बप्पा का स्वागत करते हैं, घर में विराजमान करते हैं, पूजा और आरती करते हैं। दस दिन तक उनके साथ भक्ति और उल्लास का माहौल रहता है। लेकिन सवाल उठता है—जब विदाई का समय आता है, तब हम उन्हीं बप्पा का अपमान क्यों करते हैं?
विसर्जन की परंपरा और वर्तमान हालात
सनातन संस्कृति में विसर्जन का अर्थ है देवता का सम्मानपूर्वक जल या मिट्टी में विलय, ताकि वे पुनः ब्रह्मांड में समाहित हो सकें। लेकिन आज हालात बदल चुके हैं। कई जगहों पर बप्पा की मूर्तियाँ JCB से तोड़ी जाती हैं, हाथ-पैर और सिर तक तोड़ दिए जाते हैं। यह दृश्य न केवल आस्था को ठेस पहुँचाता है बल्कि हमारे धर्म और संस्कृति के मूल्यों पर भी सवाल खड़े करता है।
भक्तों की जिम्मेदारी
भक्ति केवल आरती और प्रसाद तक सीमित नहीं है। सच्ची भक्ति का अर्थ है—भगवान का सम्मान करना, उनके साथ जुड़े हर कार्य को पवित्रता से निभाना। अगर हम विसर्जन के समय लापरवाही बरतते हैं या मूर्तियों को तोड़कर मलबा बना देते हैं, तो यह केवल मूर्ति का नहीं बल्कि आस्था का भी अपमान है।
समाज और प्रशासन की भूमिका
यह केवल भक्तों की ही नहीं बल्कि समाज और प्रशासन की भी जिम्मेदारी है कि ऐसे दृश्य दोबारा न दिखें। प्रशासन को चाहिए कि विसर्जन स्थल पर उचित व्यवस्था करे, वहीं भक्तों को भी मूर्तियों के पर्यावरण-हितैषी विसर्जन का ध्यान रखना चाहिए। मिट्टी या प्राकृतिक रंगों से बनी मूर्तियाँ अपनाना इसका एक सकारात्मक समाधान हो सकता है।
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