सरकारी आदेश ने मचाई हलचल
जम्मू-कश्मीर में एक बार फिर धार्मिक संवेदनशीलता का मुद्दा गरमाया है। केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय के निर्देश पर जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने अक्टूबर को एक आदेश जारी किया, जिसमें सभी स्कूलों में ‘वंदे मातरम’ के १५० वर्ष पूरे होने पर वर्ष भर चलने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करने को कहा गया। ७ नवंबर २०२५ से शुरू होने वाले इन कार्यक्रमों में छात्रों और स्टाफ की पूर्ण भागीदारी अनिवार्य है। जम्मू और कश्मीर के शिक्षा निदेशकों को नोडल अधिकारी बनाया गया है। यह आदेश स्वतंत्रता संग्राम के इस प्रतीकात्मक गीत को सम्मान देने का प्रयास बताता है, लेकिन मुस्लिम संगठनों ने इसे जबरन थोपने का आरोप लगाया है।
MMU का कड़ा विरोध: ‘अन्यायपूर्ण और इस्लाम-विरोधी’
मुताहिदा मजलिस-ए-उलेमा (एमएमयू), जो जम्मू-कश्मीर के प्रमुख मुस्लिम धार्मिक संगठनों का संयुक्त मंच है, ने ५ नवंबर २०२५ को इस आदेश को ‘जबरन, अन्यायपूर्ण और इस्लाम के खिलाफ’ करार दिया। एमएमयू के प्रमुख मीरवाइज उमर फारूक के नेतृत्व में जारी बयान में कहा गया कि ‘वंदे मातरम’ गाने या गाने में मातृभूमि को पूज्यनीय मानने वाले भाव इस्लाम के तौहीद (एकेश्वरवाद) सिद्धांत के विरुद्ध हैं। संगठन का मानना है कि किसी भी अन्य के प्रति श्रद्धा या पूजा केवल अल्लाह के लिए होनी चाहिए। ग्रैंड मुफ्ती नासिर-उल-इस्लाम ने भी इसे ‘इस्लामी आस्था पर हमला’ बताया और कहा कि मुसलमान अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जीते हैं। एमएमयू ने लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से अपील की कि आदेश तुरंत वापस लिया जाए, वरना धार्मिक नेताओं की बैठक बुलानी पड़ेगी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: स्वतंत्रता का प्रतीक या विवाद का कारण?
‘वंदे मातरम’ बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा १८७५ में लिखा गया था, जो आनंदमठ उपन्यास का हिस्सा है। स्वतंत्रता आंदोलन में इसका जाप हुआ, लेकिन मुस्लिम समुदाय ने शुरू से ही इसके कुछ छंदों पर आपत्ति जताई, क्योंकि वे हिंदू देवताओं का उल्लेख करते हैं। १९३७ में कांग्रेस अधिवेशन में इसे राष्ट्रीय गीत बनाने का प्रस्ताव आया, लेकिन विवाद के कारण केवल पहले दो छंद ही अपनाए गए। आज भी, कई मुस्लिम विद्वान इसे गाने से इंकार करते हैं, मानते हुए कि यह शिर्क (बहुदेववाद) को बढ़ावा देता है। जम्मू-कश्मीर जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र में यह विवाद पुरानी जख्मों को कुरेद रहा है।
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सरकार का पक्ष: सांस्कृतिक एकता का प्रयास
प्रशासन का कहना है कि यह आदेश सांस्कृतिक उत्सव का हिस्सा है, न कि किसी धर्म को थोपने का। गृह मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय के निर्देश पर आधारित यह कार्यक्रम पूरे देश में चल रहा है, जहां ३१ अक्टूबर से ७ नवंबर तक विशेष सभाओं में गायन होगा। डोडा जिले में तो हर सोमवार सुबह की सभा में गायन अनिवार्य कर दिया गया। अधिकारियों का तर्क है कि ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत है, जो देशभक्ति सिखाता है और इसका उद्देश्य युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ना है। हालांकि, एमएमयू इसे ‘आरएसएस-प्रेरित हिंदुत्व एजेंडे’ का हिस्सा बताकर अस्वीकार कर रहा है।
बहस का केंद्र: जबरन देशभक्ति या दिल से सम्मान?
यह विवाद सिर्फ एक गीत का नहीं, बल्कि आस्था और राष्ट्रभक्ति के टकराव का है। एक तरफ सरकार कहती है कि ‘वंदे मातरम’ गाना हर बच्चे का अधिकार है, जो एकता का प्रतीक है। दूसरी तरफ एमएमयू पूछता है—क्या देशभक्ति जबरन सिखाई जा सकती है? उनका कहना है कि सच्ची देशभक्ति सेवा, करुणा और संविधान के सम्मान से आती है, न कि धार्मिक विश्वासों के विरुद्ध मजबूरी से। सोशल मीडिया पर भी बहस छिड़ी है, जहां कुछ इसे सांस्कृतिक घुसपैठ बता रहे हैं।

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