मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले में मिड-डे मील की तैयारियाँ जब अख़बारों में लपेटकर और बेहद गंदगी भरी हालत में बच्चों को परोसी गईं, तो पूरे देश में एक बार फिर सवाल उठ खड़ा हुआ—आख़िर बच्चों के हिस्से का खाना बार-बार क्यों लूटा जाता है? बस गूगल पर ‘mid-day meal scam’ खोजिए, सैकड़ों नहीं, हजारों मामले सामने आ जाएंगे। ये देश के गरीब बच्चों के लिए बनी सबसे बड़ी योजनाओं में से एक है, लेकिन भ्रष्टाचार ने इसे खोखला कर दिया है।
मिड-डे मील—नीति अच्छी, सिस्टम बीमार
मिड-डे मील योजना का मकसद था—गरीब बच्चों को पौष्टिक भोजन, स्कूल में उपस्थिति बढ़ाना, और कुपोषण कम करना। लेकिन देशभर से जो तस्वीरें आती हैं, वे नीति की मजबूरी और सिस्टम की बीमारी दोनों को उजागर करती हैं।श्योपुर में खाना अख़बार में लपेटकर, खुले में, धूल-गंदगी में रखा गया। यह घटना सिर्फ एक जिला नहीं, बल्कि एक पूरे ढांचे की विफलता की झलक है।
खाना खा जाते हैं ऊपर से नीचे तक 90% तक फंड
कई रिपोर्टों में सामने आया है कि
- फंड आता है, लेकिन नीचे तक पूरी रकम नहीं पहुँचती
- बीच में अधिकारी, सप्लायर, लोकल लेवल पर कर्मचारी—सब हिस्सा लेते हैं
- नकली बिल, फर्जी स्टूडेंट लिस्ट, रेशन की चोरी आम बात बन चुकी है
- कहीं खाना मिलता ही नहीं
- कहीं कम मिलता है
- और कई जगह तो बच्चों को सड़ा-गला भोजन दिया जाता है
यह हालत सिर्फ मिड-डे मील की नहीं, बल्कि भारत में चल रही कल्याणकारी योजनाओं की एक पूरी मानसिकता है—जहाँ गरीबों का हक़ आसानी से छीन लिया जाता है।
गरीब बच्चों के हिस्से में गंदगी, अमीरों के हिस्से में चमक
जब ये घटनाएँ सामने आती हैं, तो तुलना खुद ही दिखने लगती है:
- नेता और अमीर परिवारों के बच्चे महंगी थालियों में खाना खाते हैं
- साफ़-सुथरे स्कूलों में बैठते हैं
- पौष्टिक भोजन, साफ़ पीने का पानी और स्वास्थ्य सुविधाएँ मिलती हैं
वहीं दूसरी ओर
- गरीब बच्चे धूल में बैठते हैं
- अख़बार में मिले जूठे भोजन से पेट भरने को मजबूर होते हैं
- और कई बार भूखे ही घर लौट जाते हैं
क्या यही है समानता का सपना?
सवाल—ये सिर्फ सिस्टम की विफलता है या कोई और सच्चाई छुपी है?
जब बच्चों के भविष्य के लिए बनी योजनाएँ ही सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार की शिकार बनें, तो मामला सिर्फ सिस्टम का फेल होना नहीं लगता। यहाँ एक सोच काम करती है—“गरीब बच्चे हैं, इन्हें क्या ही फर्क पड़ेगा।”लेकिन यही बच्चे देश का भविष्य हैं। अगर भविष्य भूख में बिक रहा है तो सवाल सिर्फ प्रशासन पर नहीं, बल्कि समाज की नैतिकता पर भी है।श्योपुर केवल एक केस नहीं है, यह चेतावनी है। अगर मिड-डे मील जैसी बुनियादी योजना तक सुरक्षित नहीं है, तो सरकारों के दावे और योजनाओं के flashy विज्ञापन क्या मायने रखते हैं? बच्चों का अधिकार, उनका भोजन, उनका स्वास्थ्य—इससे बड़ा मुद्दा कोई नहीं हो सकता। जरूरी है कि इस भ्रष्ट तंत्र को तोड़ा जाए, और हर बच्चे को उसका हक़ मिले।

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