कर्नाटक की राजनीति में इन दिनों सत्ता की कुर्सी को लेकर जबरदस्त ड्रामा चल रहा है। एक तरफ मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अपनी कुर्सी पर मजबूती से डटे हुए हैं, तो दूसरी तरफ उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार (डीके शि) खुलकर दावा ठोंक रहे हैं। 2023 के विधानसभा चुनाव के बाद कथित तौर पर बने ‘पावर शेयरिंग’ समझौते के 2.5 साल पूरे होने के बाद विवाद भड़क गया है। कांग्रेस हाईकमान ने अब तक कोई फैसला नहीं लिया, लेकिन 1 दिसंबर से शुरू हो रहे संसद सत्र से पहले फैसला न आने पर बड़ा राजनीतिक बवाल खड़ा होने का डर है। दिल्ली में चल रही लॉबिंग, एमएलएओं की यात्राएं और नेताओं के क्रिप्टिक बयान—सब कुछ मिलकर कहानी को और रोचक बना रहे हैं। आइए, इस पूरे ड्रामे को विस्तार से समझते हैं।
पावर शेयरिंग समझौता: वादा निभाने की जंग
कर्नाटक कांग्रेस सरकार को 2.5 साल पूरे होने पर डीके शिवकुमार के समर्थक ‘नवंबर रेवोल्यूशन’ की बातें करने लगे। शिवकुमार के करीबी एमएलए दिल्ली पहुंचे और हाईकमान से अपील की कि 2023 में सिद्धारमैया को सीएम बनाए जाने के समय किया गया रोटेशनल फॉर्मूला निभाया जाए। शिवकुमार ने खुद एक्स (पूर्व ट्विटर) पर क्रिप्टिक पोस्ट डाला: “वर्ड पावर इज वर्ल्ड पावर। सबसे बड़ी ताकत वादा निभाना है।” यह पोस्ट सीधे हाईकमान पर तंज कसा गया, क्योंकि उनके समर्थक दावा कर रहे हैं कि पार्टी ने वादा किया था—2.5 साल बाद शिवकुमार को सीएम बनाना। हाल ही में 10 से ज्यादा एमएलए दिल्ली गए, जहां उन्होंने सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे से मुलाकात की। दूसरी ओर, सिद्धारमैया ने साफ कहा, “मैं अगला बजट पेश करूंगा और पूर्ण कार्यकाल पूरा करूंगा।” उनके समर्थक एससी, एसटी, मुस्लिम और ओबीसी वोटबैंक का हवाला देकर कहते हैं कि जनता ने सिद्धारमैया के चेहरे पर वोट दिया था।
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हाईकमान की दुविधा: राहुल का ‘इंतजार करो’ और सोनिया की मीटिंग
कांग्रेस हाईकमान इस मुद्दे पर बंटा हुआ नजर आ रहा है। राहुल गांधी ने शिवकुमार को फोन पर कहा, “थोड़ा इंतजार कीजिए, मैं आपको कॉल करूंगा।” क्या यह कोई संकेत है? सूत्रों के मुताबिक, राहुल सिद्धारमैया को स्थिरता के लिए सपोर्ट कर रहे हैं, जबकि सोनिया गांधी शिवकुमार की संगठनात्मक क्षमता को देखते हुए उनके पक्ष में हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, “हमारी टीम बैठकर फैसला लेगी। राहुल, सोनिया और मैं चर्चा करेंगे।” 29 नवंबर को शिवकुमार सोनिया से मिलने वाले हैं—यह ‘फाइनल दांव’ माना जा रहा है। हाईकमान 2026 के विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर फैसला लेना चाहता है। पार्टी को एक मजबूत चेहरा चाहिए जो ओबीसी, एससी/एसटी और अल्पसंख्यक वोटों को एकजुट रखे। लेकिन देरी से कर्नाटक में अस्थिरता बढ़ रही है, और बीजेपी इसे कमजोरी के रूप में भुनाने की कोशिश कर रही है।
दोनों नेताओं के दावे: मेहनत vs जनादेश
शिवकुमार कहते हैं, “मेरी मेहनत पर कोई और क्यों चमके? सभी 140 एमएलए मेरे हैं।” वे खुद को पार्टी का ‘डिसिप्लिंड सोल्जर’ बताते हैं, लेकिन उनके समर्थक संगठन मजबूत करने और चुनाव प्रबंधन में उनकी भूमिका का जिक्र करते हैं। वहीं, सिद्धारमैया के कैंप में मंत्री सतीश जरकीहोली जैसे नेता कहते हैं, “शिवकुमार शुरू से ही सीएम बनना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने सिद्धारमैया चुना।” सिद्धारमैया को मास लीडर माना जाता है, जिनकी वजह से सरकार ने 2023 में जीत हासिल की। लेकिन आर्थिक अस्थिरता और विकास दर में गिरावट के आरोप लग रहे हैं, जिससे हाईकमान पर दबाव है। बीजेपी नेता बोरा नरसैया गौड़ ने तंज कसा, “कांग्रेस पावर और पैसे की लड़ाई लड़ रही है। सरकार कभी भी गिर सकती है।”
भविष्य की तस्वीर: समझौता या तूफान?
अब सबकी नजरें 29 नवंबर की सोनिया-शिवकुमार मीटिंग, राहुल की कॉल और 1 दिसंबर के संसद सत्र पर हैं। अगर फैसला नहीं हुआ, तो कर्नाटक में बड़ा संकट आ सकता है—एमएलए बागी हो सकते हैं या सरकार अस्थिर हो सकती है। कांग्रेस चाहती है कि 2026 चुनाव तक एक मजबूत चेहरा उभरे, लेकिन दोनों नेता झुकने को तैयार नहीं। क्या हाईकमान रोटेशनल फॉर्मूला लागू करेगा या सिद्धारमैया को जारी रखेगा? राजनीतिक जानकारों का मानना है कि देरी से पार्टी को नुकसान होगा।
आपको क्या लगता है? क्या डीके शिवकुमार को मौका मिलना चाहिए, जो युवा और संगठन-कुशल हैं, या सिद्धारमैया का अनुभव कर्नाटक को स्थिरता देगा?

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