उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी (BSP) और इसकी सुप्रीमो मायावती के सामने 2027 का विधानसभा चुनाव एक निर्णायक मोड़ है। क्या मायावती अपने पारंपरिक दलित वोट बैंक को फिर से एकजुट कर पाएँगी, या BSP का सियासी ग्राफ और नीचे जाएगा? चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती ने न केवल सत्ता हासिल की, बल्कि दलितों के साथ अन्य समुदायों को जोड़कर सामाजिक समीकरण गढ़ा। लेकिन 2007 के स्वर्णिम काल के बाद BSP का जनाधार लगातार सिमटता गया। आइए, इस सफर और 2027 की चुनौतियों पर नजर डालें।
2007: मायावती का स्वर्णकाल
2007 का विधानसभा चुनाव मायावती के राजनीतिक करियर का शिखर था। BSP ने 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया, और 30.43% वोट शेयर के साथ इतिहास रचा। इस जीत का राज था मायावती का “रंगीन गठबंधन”, जिसमें दलितों के साथ-साथ पिछड़े और सवर्ण वोटरों को जोड़ा गया। इस रणनीति ने मायावती को देश का सबसे मजबूत दलित चेहरा बनाया, लेकिन यह चमक ज्यादा दिन नहीं टिकी।
लगातार गिरावट: 2012 से 2022 तक
- 2012: BSP की सीटें 206 से घटकर 80 रह गईं, और वोट शेयर 25.91% तक सिमटा।
- 2017: प्रदर्शन और खराब हुआ, केवल 19 सीटें और 22.23% वोट शेयर।
- 2022: BSP का सबसे बुरा दौर, सिर्फ 1 सीट और 12.88% वोट शेयर।
यह गिरावट BSP की सियासी जमीन को कमजोर करने के साथ-साथ उसके दलित वोट बैंक को भी बिखेर रही है।
दलित वोट बैंक: अब किसके साथ?
BSP की ताकत हमेशा दलित वोटरों, खासकर जाटव समुदाय, पर टिकी थी। लेकिन हाल के चुनावों में:
- भाजपा ने “सबका साथ, सबका विकास” और हिंदुत्व के एजेंडे से गैर-जाटव दलितों को अपनी ओर खींचा।
- सपा ने पिछड़ों और मुसलमानों के साथ गठजोड़ कर दलित वोटों में सेंध लगाई।
- आजाद समाज पार्टी जैसे नए दल युवा दलितों को आकर्षित कर रहे हैं।
इसके चलते BSP का वोट बैंक कई हिस्सों में बंट गया।
मायावती की रणनीति: जनता का गठबंधन
2022 के बाद BSP के सामने सिर्फ सत्ता की नहीं, बल्कि अस्तित्व की चुनौती है। मायावती इस खतरे को भांपते हुए नई रणनीतियाँadopt कर रही हैं। ग्राम चौपाल, सामाजिक संतुलन वाले प्रत्याशी, और बूथ स्तर पर संगठन को मजबूत करना उनकी 2027 की तैयारी का हिस्सा है। लेकिन क्या यह रणनीति दलित और पिछड़े वोटरों में फिर से विश्वास जगा पाएगी?
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पंचायत चुनाव: 2027 का सेमीफाइनल
पंचायत चुनाव उत्तर प्रदेश में 2027 की सियासी तस्वीर का आलम बताएंगे।
- भाजपा अपने मजबूत संगठन और केंद्र-राज्य की योजनाओं पर भरोसा कर रही है।
- सपा किसानों और नौजवानों को जोड़ने में जुटी है।
- BSP अपने पुराने ढांचे को पुनर्जनन करने की कोशिश में है।
- कांग्रेस युवा और महिला वोटरों पर फोकस कर रही है।
2021 के पंचायत चुनावों में भाजपा ने जिला पंचायतों में बढ़त बनाई थी, लेकिन सपा ने ग्राम और क्षेत्र पंचायतों में जोर दिखाया। इस बार सभी दल इसे 2027 का सेमीफाइनल मानकर जोर लगा रहे हैं।
2027 की चुनौतियाँ
मायावती के सामने कई चुनौतियाँ हैं:
- दलित और पिछड़े वोटरों में विश्वास बहाल करना।
- 2007 जैसा “रंगीन समीकरण” दोहराना।
- भाजपा और सपा की सियासी जुगलबंदी में अपनी पहचान बनाना।
- युवा और महिला वोटरों को आकर्षित करना।
क्या मायावती फिर से रचेंगी इतिहास?
2027 का चुनाव मायावती के लिए सिर्फ सत्ता की वापसी नहीं, बल्कि BSP के अस्तित्व का सवाल है। अगर वह 2007 जैसा जादू दोहरा पाईं, तो BSP फिर से “किंगमेकर” बन सकती है। लेकिन अगर रणनीति नाकाम रही, तो दलित राजनीति पूरी तरह भाजपा और सपा के पक्ष में खिसक सकती है। पंचायत चुनावों का परिणाम इस दिशा में बड़ा संकेत देगा। क्या मायावती अपनी खोई चमक लौटा पाएँगी, या 2027 उनकी सबसे कठिन परीक्षा होगी?

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