राजस्थान के उदयपुर से आई एक दिल दहला देने वाली घटना ने फिर से आवारा कुत्तों के बढ़ते आतंक पर बहस छेड़ दी है। एक पांच साल का मासूम बच्चा, जो अपने घर के बाहर स्कूटर पर खेल रहा था, अचानक तीन खतरनाक आवारा कुत्तों का निशाना बन गया। वे उस पर झपट पड़े और उसे बुरी तरह नोचने लगे। बच्चे की चीखें सुनकर उसकी मां बाहर दौड़ी और समय रहते उसे बचा लिया, वरना शायद आज एक और मासूम की जान चली जाती।यह कोई पहली घटना नहीं है। देशभर से लगातार ऐसी खबरें सामने आती रही हैं, जहाँ आवारा कुत्तों द्वारा बच्चों, बुजुर्गों और आम नागरिकों पर हमले किए जा रहे हैं। लेकिन इस बार मामला ज्यादा गंभीर इसलिए भी है क्योंकि यह सवाल सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले पर भी उठ रहा है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुत्तों के लिए शेल्टर की व्यवस्था
सुप्रीम कोर्ट ने कुछ समय पहले यह आदेश दिया था कि आवारा कुत्तों को मारा नहीं जाएगा बल्कि उन्हें पकड़कर शेल्टर होम्स में रखा जाएगा। इस फैसले को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। एक तरफ पशु प्रेमियों ने इसे मानवता का प्रतीक बताया है, तो दूसरी तरफ आम नागरिक सवाल उठा रहे हैं क्या इंसानी जान की कीमत कम हो गई है?
पशु प्रेम बनाम मानव जीवन कौन ज्यादा जरूरी?
हम मानते हैं कि जैसे हर इंसान एक जैसा नहीं होता, वैसे ही हर कुत्ता भी खतरनाक नहीं होता। कई लोग आवारा कुत्तों को खाना खिलाते हैं, उनकी देखभाल करते हैं यह सराहनीय है। लेकिन जब यही कुत्ते सड़कों पर हमला करने लगें, बच्चों की जान पर बन आए, तो सवाल उठाना जरूरी हो जाता है। कुत्ते प्रेमियों से कोई दुश्मनी नहीं, लेकिन क्या वे उन मासूमों की जान लौटा सकते हैं, जिन्हें इन कुत्तों ने नोच-नोच कर मार डाला? क्या सोशल मीडिया पर विरोध जताने से बड़ी सच्चाई छुपाई जा सकती है?
समाज की चुप्पी भी उतनी ही खतरनाक
सबसे दुखद पहलू यह है कि ऐसी घटनाओं के बाद भी समाज खामोश रहता है। कुछ दिन हंगामा होता है, फिर सब भूल जाते हैं। ना तो स्थानीय प्रशासन जिम्मेदारी लेता है, ना ही कोई स्थायी समाधान निकलता है। समय आ गया है कि अब भावनाओं से ऊपर उठकर हकीकत को स्वीकार किया जाए। पशु अधिकार और मानव अधिकार के बीच संतुलन जरूरी है – लेकिन वह संतुलन तभी संभव है जब मासूमों की सुरक्षा को सर्वोपरि रखा जाए।
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