हाल ही में महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी की गई अधिसूचना ने एक बार फिर ‘हिंदी थोपने’ के विवाद को जन्म दे दिया है। यह मुद्दा अब महज़ शिक्षा नीति का हिस्सा नहीं रह गया बल्कि एक राजनीतिक और सांस्कृतिक बहस का केंद्र बन चुका है।
क्या है पूरा मामला?
मंगलवार को महाराष्ट्र सरकार ने एक संशोधित अधिसूचना जारी की, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि अब राज्य के सभी स्कूलों — चाहे वे मराठी माध्यम हों या अंग्रेजी माध्यम उनमें हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाना अनिवार्य होगा। इस फैसले का आधार भारत की तीन-भाषा नीति (Three Language Formula) को बताया गया है, जिसे केंद्र सरकार द्वारा दशकों पहले लागू किया गया था।सरकार का कहना है कि यह कोई नई नीति नहीं, बल्कि एक शैक्षिक समन्वय का हिस्सा है। पहली भाषा क्षेत्रीय (जैसे मराठी), दूसरी भाषा (अंग्रेजी या हिंदी), और तीसरी भाषा हिंदी या कोई अन्य होती है। ऐसे में महाराष्ट्र में हिंदी को तीसरी भाषा बनाने का फैसला राष्ट्रीय भाषा समावेश की दिशा में एक कदम बताया जा रहा है।
विरोध क्यों हो रहा है?
इस फैसले का सबसे ज़्यादा विरोध उन क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने किया है, जो राज्य की भाषाई अस्मिता की रक्षा का दावा करते हैं। महा विकास अघाड़ी (MVA) जिसमें उद्धव ठाकरे की शिवसेना (UBT), शरद पवार की NCP, और कांग्रेस शामिल हैं — ने इसे खुलेआम ‘हिंदी को थोपने की साजिश’ बताया है।हैरानी की बात यह है कि इस बार राज ठाकरे की मनसे (जो सामान्यतः बीजेपी के करीब मानी जाती है) ने भी विरोध किया। राज ठाकरे ने साफ शब्दों में कहा कि मराठी अस्मिता के साथ खिलवाड़ नहीं होने दिया जाएगा।” उनका मानना है कि अगर हिंदी को जबरदस्ती थोपा गया, तो मराठी भाषा और संस्कृति को दीर्घकालिक नुकसान हो सकता है।
तीन-भाषा नीति: क्या यह थोपना है या संतुलन?
भारत की तीन-भाषा नीति का मकसद भाषाई विविधता को सम्मान देना और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना है। लेकिन आलोचकों का कहना है कि असल में यह नीति हिंदी भाषी राज्यों की भाषा और संस्कृति को अन्य राज्यों पर थोपने का एक राजनीतिक औजार बनती जा रही है।दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर राज्यों, और अब महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इस नीति को लेकर असंतोष की लहर रही है। इन क्षेत्रों में अंग्रेजी को व्यवहारिक भाषा और क्षेत्रीय भाषा को सांस्कृतिक पहचान के रूप में प्राथमिकता दी जाती है।
राजनीति बनाम भाषा सुधार
जहां एक ओर केंद्र सरकार का कहना है कि यह फैसला ‘एक भारत – श्रेष्ठ भारत’ की सोच को साकार करने के लिए है, वहीं क्षेत्रीय दल इसे संघीय ढांचे (Federal Structure) पर हमला मानते हैं। उनका कहना है कि राज्यों को अपने शैक्षणिक पाठ्यक्रम और भाषा नीति में स्वायत्तता मिलनी चाहिए।यह विवाद अब राजनीतिक मोड़ ले चुका है। विपक्षी दल इस मुद्दे को राज्य बनाम केंद्र की राजनीति, सांस्कृतिक पहचान की रक्षा, और लोकल बनाम नेशनल भाषा संघर्ष के रूप में उठा रहे हैं।
एक राष्ट्र, कई भाषाएं संतुलन ज़रूरी है
भारत एक बहुभाषी देश है जहां हर राज्य की अपनी भाषा, संस्कृति और पहचान है। ऐसे में कोई भी एक भाषा थोपना केवल शैक्षिक नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक असंतुलन को जन्म दे सकता है।महाराष्ट्र सरकार को चाहिए कि वह संवाद के माध्यम से संतुलन बनाते हुए नीति को लागू करे। केंद्र को भी राज्यों की भाषाई संवेदनाओं का सम्मान करते हुए कोई भी निर्णय लेना चाहिए। क्योंकि जब तक संवाद और समावेश नहीं होगा, तब तक ‘हिंदी थोपने’ का विवाद देश को एकता के बजाय विभाजन की ओर ले जाएगा।
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