22 जून 2025 की सुबह, जब दुनिया एक सामान्य दिन की शुरुआत कर रही थी, अमेरिका ने ईरान की तीन प्रमुख परमाणु सुविधाओं (nuclear facilities) पर एयरस्ट्राइक कर दी। यह हमला ऐसे समय हुआ जब ईरान में हाल ही में निर्वाचित राष्ट्रपति मसूद पेज़ेशकियान ने सत्ता संभाली ही थी।इस अचानक हुए हमले ने मध्य-पूर्व में सुरक्षा और स्थिरता को लेकर गहरी चिंता खड़ी कर दी है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में जो सबसे ज्यादा चर्चा में है, वो है भारत की प्रतिक्रिया या कहें चुप्पी।
भारत की आधिकारिक प्रतिक्रिया: ‘गंभीर चिंता’ तक सीमित
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमले के कुछ घंटे बाद ईरानी राष्ट्रपति से फोन पर बातचीत की और स्थिति पर गंभीर चिंता जताई। लेकिन चौंकाने वाली बात ये रही कि भारत ने अमेरिका की सैन्य कार्रवाई की न तो कोई निंदा की और न ही कोई सख्त बयान जारी किया।
क्या सिर्फ ‘चिंता’ जताना काफी है?
जब बात इतनी गंभीर हो एक संप्रभु राष्ट्र पर सुपरपावर द्वारा सीधे सैन्य हमला तो सिर्फ “चिंता” जताना क्या पर्याप्त है?कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी और कहाभारत सरकार को अमेरिका की बमबारी और इजराइल की आक्रामकता की निंदा करनी चाहिए थी। ग़ज़ा में हो रहे नरसंहार पर भी सरकार की चुप्पी बेहद निराशाजनक है।”
भारत की परंपरागत नीति: गुटनिरपेक्षता और संतुलन
भारत ऐतिहासिक रूप से गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का हिस्सा रहा है — एक ऐसी नीति जो ना अमेरिका और ना ही रूस जैसे महाशक्तियों के पक्ष में झुकाव दिखाती थी। भारत हमेशा संतुलन, संप्रभुता के सम्मान, और संवाद की नीति का समर्थक रहा है।लेकिन हाल के वर्षों में भारत की विदेश नीति में कुछ प्रमुख बदलाव देखे जा रहे हैं:
- अमेरिका और भारत के रणनीतिक संबंधों में तेज़ी से सुधार हुआ है।
- रक्षा, व्यापार और तकनीकी क्षेत्रों में अमेरिका के साथ कई समझौते हुए हैं।
- चीन और पाकिस्तान के खिलाफ एक प्राकृतिक गठजोड़ बनता दिख रहा है।
चुप्पी के संभावित कारण राजनयिक रणनीति या दबाव?
भारत की चुप्पी के पीछे कई संभावित कारण हो सकते हैं:
- राजनयिक संतुलन: भारत न तो अमेरिका से संबंध खराब करना चाहता है और न ही ईरान जैसे पारंपरिक साझेदार को नाराज़।
- ऊर्जा निर्भरता: भारत की तेल जरूरतों में ईरान का अहम योगदान रहा है।
- सुरक्षा सहयोग: अमेरिका के साथ बढ़ती रक्षा साझेदारी और खुफिया सहयोग भारत के लिए रणनीतिक रूप से जरूरी हो गया है।
- चुनाव बाद की स्थिति: हाल ही में गठित नई सरकार की विदेश नीति अब खुद को सावधानीपूर्वक पुनः परिभाषित कर रही है।
लेकिन सवाल उठता है क्या नैतिक चुप्पी भी विदेश नीति का हिस्सा है?
दुनिया भर में जब लोकतंत्र, मानवाधिकार और शांति की बात होती है, तो भारत को एक नैतिक शक्ति के रूप में देखा जाता है। ऐसे में यह उम्मीद की जाती है कि भारत न सिर्फ अपने राष्ट्रीय हितों की बात करे, बल्कि मानवता और अंतरराष्ट्रीय कानून के पक्ष में भी खड़ा हो।अगर भारत अमेरिकी कार्रवाई पर खामोश रहता है, तो यह केवल राजनीतिक चुप्पी नहीं, बल्कि नैतिक झिझक भी कहलाएगी।
क्या विदेश नीति बदल रही है?
भारत की चुप्पी एक नई विदेश नीति का संकेत हो सकती है, जिसमें संतुलन और रणनीतिक गुटबंदी के बीच संघर्ष चल रहा है। यह न तो पूरी तरह गुटनिरपेक्षता है, न ही पूरी तरह गठबंधन-समर्थक रुख।अब सवाल जनता के सामने हैक्या भारत को अमेरिका की ईरान पर की गई इस सैन्य कार्रवाई की सार्वजनिक रूप से निंदा करनी चाहिए थी?क्या चुप रहना ही अब भारत की रणनीति बन चुका है?
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