भारतीय राजनीति में बयानबाज़ी कोई नई बात नहीं है, लेकिन जब बात लोकतंत्र और चुनावों की हो, तो हर शब्द का वजन कई गुना बढ़ जाता है। हाल ही में आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता और दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने एक ऐसा बयान दिया, जिसने राजनीतिक हलकों में गर्माहट पैदा कर दी है।13 अगस्त 2025 को दिए गए एक सार्वजनिक बयान में सिसोदिया ने कहा
2027 का चुनाव जीतने के लिए जो करना पड़ेगा, करेंगे साम, दाम, दंड, भेद सब लगाएंगे।इस कथन के बाद सियासी तूफान खड़ा हो गया है। सवाल उठ रहे हैं क्या यह सिर्फ एक उग्र राजनीतिक भाषण था या लोकतंत्र की जड़ों को हिलाने वाला इशारा?
साम, दाम, दंड, भेद’ का मतलब क्या है?
यह नीति प्राचीन भारतीय राजनीति के चाणक्य सूत्रों से ली गई है, जिसका मतलब है:साम: संवाद से समाधानदाम: धन या लालच से पक्ष में करना दंड: दंड या सजा का भय भेद: विरोधी के भीतर फूट डालना राजनीतिक रणनीति के तौर पर इसका इस्तेमाल सदियों से होता आया है, लेकिन जब इसे लोकतांत्रिक चुनावों में लागू करने की बात की जाती है, तो यह सवाल खड़े करता है कि क्या अब चुनावों में नीतियों की नहीं, चालाकियों की जीत होगी?
क्या यह बयान लोकतंत्र के लिए खतरा है?
भाजपा की पंजाब इकाई के अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने इस बयान को लोकतंत्र विरोधी करार देते हुए चुनाव आयोग को पत्र लिखा है। उनका आरोप है कि सिसोदिया का यह कथन न सिर्फ चुनावी नैतिकता को तोड़ता है, बल्कि चुनावी कानूनों का सीधा उल्लंघन भी है।इस मामले में यह भी सोचने की ज़रूरत है कि अगर इस प्रकार की सोच को समय रहते नहीं रोका गया, तो क्या हम आने वाले वर्षों में चुनावों को एक ‘राजनीतिक खेल’ भर बनता नहीं देखेंगे?
सत्ता की भूख या रणनीतिक बयान?
आज के समय में जब चुनाव विचारधारा से ज़्यादा प्रचार और प्रबंधन पर टिके हुए दिखते हैं, तो यह जानना ज़रूरी है कि क्या ऐसे बयान सिर्फ रणनीति हैं या सत्ता की भूख का खुला ऐलान? विपक्षी दलों के ऐसे बयान क्या लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर कर रहे हैं या यह सिर्फ भाषणबाज़ी का हिस्सा है? हर लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी जनता होती है। अब यह मतदाताओं के विवेक पर है कि वे इस तरह के बयानों को कैसे लेते हैं राजनीतिक नाटक के रूप में, या गंभीर इरादों के संकेत के रूप में।क्योंकि सवाल सिर्फ 2027 का नहीं है, सवाल लोकतंत्र के भविष्य का है।
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