प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने एक चौंकाने वाला फैसला लेते हुए देशव्यापी जातिगत जनगणना की घोषणा कर दी है। यह वही मांग है जिसे विपक्षी दल वर्षों से उठाते आ रहे थे, लेकिन अब यह पहल खुद सत्तारूढ़ भाजपा की ओर से आई है। यह कदम न सिर्फ राजनीतिक समीकरणों को बदलने वाला है, बल्कि सामाजिक न्याय और चुनावी राजनीति में भी दूरगामी प्रभाव डाल सकता है।
जातिगत गणना की घोषणा क्यों अहम है?
भारत में जाति एक ऐसी सच्चाई है जो समाज से लेकर राजनीति तक हर स्तर पर गहराई से मौजूद है। हालांकि 1931 के बाद से सरकारी तौर पर जातिगत जनगणना नहीं हुई, लेकिन सामाजिक समूहों की संख्या और भागीदारी को लेकर बहस चलती रही। खासकर ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) की हिस्सेदारी को लेकर लंबे समय से असंतोष रहा है।
अब जब केंद्र सरकार ने 2026 से पहले जातिगत जनगणना शुरू करने का फैसला किया है, तो यह साफ है कि इस कदम के कई राजनीतिक और सामाजिक मायने हैं।
भाजपा की रणनीति: विपक्ष की ज़मीन खिसकाने की कोशिश?
अब तक जातिगत जनगणना को लेकर भाजपा का रुख अस्पष्ट था। लेकिन विपक्ष — खासकर आरजेडी, कांग्रेस और जेडीयू जैसे दल — इसे अपनी राजनीति का मुख्य आधार बनाते रहे हैं। वे इसे सामाजिक न्याय और हाशिए पर खड़े वर्गों को अधिकार दिलाने का औज़ार मानते हैं।
अब भाजपा खुद यह दांव चलकर, विपक्ष की मांग को हथिया लेने में सफल रही है। इसका सीधा असर बिहार, यूपी, मध्य प्रदेश और ओबीसी बहुल राज्यों की राजनीति पर पड़ेगा।
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बिहार चुनाव 2025: पहला असर?
बिहार में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और वहां जाति की राजनीति हमेशा से हावी रही है। नीतीश कुमार की अगुवाई में राज्य सरकार पहले ही जातिगत सर्वे कर चुकी है। अब केंद्र द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत गणना की घोषणा से भाजपा ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह भी सामाजिक न्याय के पक्ष में है, और सिर्फ ‘सवर्ण पार्टी’ की छवि को तोड़ना चाहती है।
यह दांव भाजपा को बिहार में ओबीसी और दलित मतदाताओं के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने में मदद कर सकता है, जो अब तक आरजेडी और जेडीयू का कोर वोटबैंक रहा है।
विपक्ष की मुश्किलें
जातिगत जनगणना की मांग को लेकर विपक्ष ने वर्षों से जो नैरेटिव तैयार किया था, वह अब केंद्र सरकार द्वारा छीना जा चुका है। इससे विपक्ष की ‘हम ही सामाजिक न्याय के रक्षक हैं’ वाली छवि को बड़ा झटका लग सकता है। अब उन्हें यह साबित करना होगा कि वे इससे बेहतर और ठोस नीति प्रस्ताव लाकर ही मतदाताओं को आकर्षित कर सकते हैं।
क्या यह सिर्फ चुनावी स्टंट है?
कई आलोचकों का मानना है कि यह कदम चुनावी रणनीति से प्रेरित है, खासकर तब जब लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा को कुछ राज्यों में झटका लगा था। लेकिन भाजपा समर्थक इसे “सबका साथ, सबका विकास” के एजेंडे का विस्तार मानते हैं।
अगर सरकार यह जनगणना पारदर्शिता और निष्पक्षता से करवा पाती है, और इसके आधार पर नीतिगत बदलाव भी सामने आते हैं (जैसे आरक्षण की समीक्षा या योजनाओं की नई रूपरेखा), तो यह एक ऐतिहासिक पहल बन सकती है।
जातिगत जनगणना की घोषणा न सिर्फ एक नीतिगत निर्णय है, बल्कि यह एक राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक भी है। इससे न केवल भाजपा ने विपक्ष को बैकफुट पर डाल दिया है, बल्कि सामाजिक न्याय की राजनीति को भी नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश की है।
बिहार चुनाव इसके पहले मैदान होंगे, जहां इस फैसले का सीधा असर दिखेगा। अब देखना होगा कि क्या जनता इसे सामाजिक न्याय की दिशा में ठोस पहल मानेगी या केवल चुनावी चाल।
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